बुरे काम का बुरा नतीजा क्यों भाई चाचा...?
विशेष सूचना
ये एक व्यंग्यात्मक[ मजाक़िया ]लेख है। इसमें चाचा-भतीजा, मामा-भांजा, भाई-भाभी का ज़िक्र किसी ख़ास शख़्स से जोड़ने की कोशिश न की जाए। शहर में चुनावी मौसम है, टिकट की रस्साकशी तेज़ है, कई प्रभागों में यही कहानी चल रही है। ज़्यादा दिल पर न लें — सब जानते हैं “गंदा है, पर धंधा है”, बस ज़ुबान से कहते नहीं। लेख मे ज़िक्र किए गए रिष्ते किसी से मेल खाते है तो ये महज़ एक संयोग है!लेख सिर्फ़ मनोरंजन के लिए है — पढ़िए, मुस्कुराइए… मन ही मन भला बुरा भी कहे सकते हैं! [ अली रज़ा आबेदी ]
छत्रपती संभाजीनगर (औरंगाबाद) में महानगरपालिका चुनाव का बिगुल बजते ही सियासत ने फिर साबित कर दिया कि यहाँ जंग सरहद पर नहीं, ड्रॉइंग-रूम में लड़ी जाती है। ये कोई आम चुनाव नहीं, ये तो पूरा का पूरा धर्मयुद्ध है — और इस युद्ध में सबसे ज़्यादा ज़ख़्मी वही होता है जिसने सबसे ज़्यादा पसीना बहाया हो यानी भतीजा, भांजा, भाई।
यही इस कुरुक्षेत्र का अर्जुन है — वो नौजवान कार्यकर्ता जिसने अपनी जवानी पार्टी की सेवा में घिस दी, इस यक़ीन के साथ कि “एक दिन नगरसेवक तो बनूँगा!”
मगर हाय री क़िस्मत! उसकी तमन्नाओं पर पानी फेरने वाले कोई और नहीं, उसी के घर के बुज़ुर्ग हैं।
शहर के कई प्रभागों में सीन एक-सा है। चाचा, चाची, मामा, मामी, भाई, भाभी — सब टिकट के लिए पूरे कॉन्फ़िडेंस के साथ मैदान में। दलील बिल्कुल साफ़:
“मैं पूर्व नगरसेवक रहा हूँ, बरसों से समाज-सेवा कर रहा हूँ… और हाँ, दबी ज़ुबान में — ये मेरा धंधा है! अब बारी घर की है।”
यहाँ जनसेवा नहीं, वंश-सेवा ही असली योग्यता है। टिकट मांगते वक़्त चाचा का अनुभव चलता है, प्रचार में चाची का नाम चमकता है।
इसी परिवार में अर्जुन भी है — वही भतीजा/भांजा/भाई — जो पाँच साल से गली-गली चप्पल घिस रहा था, लोगों के काम करवा रहा था, हर झंडा-बैनर, हर सभा में हाज़िर। आज वही अर्जुन आज धर्मसंकट में खड़ा है।
सामने चाचा- चाची, मामा- मामी का दबाव, बगल में चाची-मामी-भाभी की दावेदारी, और ऊपर से पार्टी की ख़ामोशी — ऐसी ख़ामोशी कि कान बजने लगें।
ये धर्मयुद्ध भी क्या अजीब है!
चाचा फरमाते हैं — “भतीजे का भविष्य बाद में देखेंगे, पहले परिवार का मान।”
पार्टी कहती है — “समाजशास्त्र और समीकरण देख रहे हैं।”
नतीजा? अर्जुन को अपनी मेहनत पानी में जाती दिखती है। न बग़ावत की हिम्मत, न समर्पण का सुकून। सामने अपने ही लोग हैं, और पीछे कोई कृष्ण नहीं — बस खोखले आश्वासन।
संभाजीनगर की सियासत यही बताती है कि अब राजनीति का मतलब जनहित नहीं, घर-हित हो गया है।
चाचा का चुनावी धंधा है, चाची को टिकट मिले तो त्याग, और भतीजे की टिकट कटे तो —
“अभी उसकी उम्र ही क्या है!” और ये चाचा-चाची, मामा- मामी, भाई-भाबी हज, उमरा, देव दर्शन जाने की तय्यारी करना छोड चुनाव की तय्यारी मे लगे है!
यही इस पूरे धर्मयुद्ध का सबसे चुटीला व्यंग्य है — अर्जुन वही है जो सबसे ईमानदारी से टिकट के लिए जूझ रहा था, मगर परिवार की ख़ातिर उसे ही पार्टी और अपने लोग किनारे लगा देते हैं।
तो भाई, क्या करें — राजनीति अब समाज-सेवा नहीं, सीधा-सीधा धंधा है!
हे कृष्ण! रिश्तों और राजनीति के इस दल दल में फँसे आज के अर्जुन को एक बार फिर गीता सुना दो…
कम से कम रास्ता तो दिखा दो!
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