महाराष्ट्र में स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं के चुनाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला — ओबीसी आरक्षण को भी मिली मंजूरी

लेखक: [अली रज़ा आबेदी ]
महाराष्ट्र की राजनीति में लंबे समय से लंबित स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं (जैसे नगर परिषद, जिला परिषद, महानगरपालिका) के चुनाव और ओबीसी आरक्षण को लेकर चल रहा विवाद आज सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के साथ एक निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया है। इस फैसले ने राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पुनः गति देने का मार्ग प्रशस्त किया है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या कहता है?
4 अगस्त 2025 को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दो अहम निर्णय दिए:
1️⃣ वार्ड संरचना को दी वैधता:
औसा नगर परिषद द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नई वार्ड रचना वैध है और राज्य सरकार को ऐसे निर्णय लेने का अधिकार है। अतः अब आगामी स्थानीय निकाय चुनाव नई वार्ड संरचना के अनुसार ही होंगे।
2️⃣ ओबीसी आरक्षण को मंजूरी:
कोर्ट ने 27% ओबीसी आरक्षण को पूर्ववत् स्वीकार करते हुए कहा कि यह ट्रिपल टेस्ट के मापदंडों को पूरा करता है। इसके अनुसार बंथिया आयोग की जुलाई 2022 की रिपोर्ट को वैध मानते हुए ओबीसी समाज को राजनीतिक आरक्षण दिया जाएगा।
चुनाव को लेकर तय की गई समय-सीमा:
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग को यह निर्देश दिया:
• 4 सप्ताह के भीतर चुनाव की अधिसूचना जारी की जाए।
• 4 महीनों के भीतर चुनाव प्रक्रिया पूरी की जाए।
• यदि आवश्यक हो तो चुनाव आयोग अतिरिक्त समय की माँग कर सकता है।
चुनाव होंगे, लेकिन परिणाम होंगे “अस्थायी”:
हालांकि चुनाव होंगे, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि परिणाम उन याचिकाओं के अंतिम निर्णय के अधीन रहेंगे, जिनमें बंथिया आयोग की रिपोर्ट को चुनौती दी गई है। यानी यदि भविष्य में रिपोर्ट अवैध ठहराई जाती है, तो चुनाव परिणामों पर प्रभाव पड़ सकता है।
राजनीतिक असर और सामाजिक संदेश:
यह फैसला राज्य की राजनीति में बड़ा बदलाव ला सकता है:
• ओबीसी नेताओं को मिलेगी मजबूती, जिससे राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।
• स्थानीय निकायों में चुनाव से गांव से लेकर शहर तक लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ेगी।
• तीन साल से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के बिना चल रही संस्थाओं को नया जीवन मिलेगा।
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश न केवल महाराष्ट्र के लाखों नागरिकों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को पुनर्जीवित करता है, बल्कि ओबीसी समाज के लिए भी न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व का मार्ग खोलता है। अब राज्य सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के लिए यह परीक्षा की घड़ी है — क्या वे समयबद्ध तरीके से इस आदेश का पालन करते हैं ?
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