अब नहीं लगेंगी उलमा की तस्वीरें – आयतुल्लाह सीस्तानी का ऐतिहासिक पैग़ाम

( अली रज़ा आबेदी ) दुनियाभर के शिया समाज में उस वक़्त हलचल मच गई जब मरजए आज़म आयतुल्लाह अली अल-सीस्तानी ने उलमा (धार्मिक विद्वानों) की तस्वीरों के सार्वजनिक प्रदर्शन ( महोर्रम आशुरा जुलुस, अरबइन जुलुस इमाम बाडो ) पर सवाल उठाते हुए एक मौलिक और ऐतिहासिक पैग़ाम जारी किया। उनका यह बयान सिर्फ इराक या ईरान तक सीमित नहीं रहा, बल्कि भारत, पाकिस्तान और अन्य शिया बहुल इलाकों में भी तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिली।
मुख्य पैग़ाम
सीस्तानी साहब ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि "उलमा की तस्वीरों को सार्वजनिक स्थलों, कार्यक्रमों और सोशल मीडिया पर दिखाना बंद किया जाए। यह कोई तौहीन (अपमान) नहीं बल्कि तसफिया (शुद्धिकरण) की ज़रूरत है।"
उनके अनुसार, इमामों की शिक्षाओं के अनुरूप सादगी और तवाज़ुन बनाए रखना हर मोमिन का कर्तव्य है। यह कदम समाज को आत्ममूल्यांकन और आध्यात्मिक शुद्धता की ओर ले जाएगा।
शिया समाज में बहस का माहौल
इस पैग़ाम के बाद इराक, ईरान, भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में शिया समुदाय के बीच गंभीर बहस शुरू हो गई है। कई लोग इसे सकारात्मक बदलाव मान रहे हैं, तो कुछ इसे पारंपरिक तरीकों से विचलन बता रहे हैं। धार्मिक जलसों में तस्वीरें लगाना आम परंपरा इरान, इराक़ मे रही है, लेकिन अब इन पर पुनर्विचार की मांग उठ रही है।
क्या है 'मरजए आज़म' का मक़सद?
सीस्तानी साहब की मंशा समाज को धार्मिक प्रतीकों के पीछे की सच्ची भावना से जोड़ने की है। उनका मानना है कि धर्म गुरुओं की छवियों की बजाय उनके ज्ञान, किरदार और सेवा पर ध्यान देना चाहिए। इससे अंधभक्ति की बजाय विवेक आधारित श्रद्धा को बढ़ावा मिलेगा।
आयतुल्लाह सीस्तानी का यह पैग़ाम न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और वैचारिक दृष्टि से भी एक नई दिशा प्रदान करता है। यह बयान शिया समाज को आंतरिक चिंतन, संयम और आध्यात्मिक प्रगति की ओर प्रेरित करता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह परिवर्तन किस हद तक व्यवहारिक रूप ले पाता है और समाज इस विचारधारा को किस रूप में स्वीकार करता है।
What's Your Reaction?






