देवास शरीफ़: अहले-बैत (अ.स.) की मोहब्बत और तालीमात का मरकज़... कौन है वारीस अली शहा ( र.अ. ) ...? )
वारीस अली शाह (रह.) की पहचान नस्ब से नहीं, अमल से बनी
[ सारा रज़ा आबेदी ] बाराबंकी (उ.प्र.) स्थित देवास शरीफ़ उत्तर भारत का एक ऐसा रूहानी मरकज़ है, जिसकी पहचान सिर्फ़ एक दरगाह तक सीमित नहीं, बल्कि अहले-बैत (अ.स.) की मोहब्बत, इंसानियत और आपसी भाईचारे की तालीम से जुड़ी हुई है। इस मरकज़ को पहचान दिलाने वाली शख़्सियत हैं—हज़रत मौलाना सैयद वारिस अली शाह उर्फ़ वारीस पाक (रह.)।
वारीस पाक निस्बत की बुनियाद अहले-बैत (अ.स.) की मोहब्बत पर क़ायम थी। वो इमाम हुसैन (अ.स.) के उस पैग़ाम को अपनी ज़िंदगी में उतारते नज़र आते हैं, जिसमें ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होना, इंसाफ़, सब्र और इंसान की इज़्ज़त सबसे ऊपर रखी गई है। उनके नज़दीक अहले-बैत (अ.स.) से मोहब्बत महज़ नस्बी दावा नहीं, बल्कि उनके अख़लाक़ और किरदार को अपनाने का नाम है।
ख़ानक़ाही दस्तावेज़ों, शजर-ए-नस्ब और पुरानी रिवायतों के मुताबिक़, वारीस पाक का ताल्लुक़ अहले-बैत से माना जाता है और उनका नस्ब इमाम अली रज़ा (अ.स.) से जोड़ा जाता है, जो इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के फ़र्ज़ंद थे। इसी वजह से उन्हें हुसैनी सैयद भी कहा जाता है।
लेकिन ख़ास बात यह है कि वारीस अली शाह (रह.) ने कभी भी अपने नस्ब को अपनी बड़ाई या शोहरत का ज़रिया नहीं बनाया। वो साफ़ कहते थे कि “अहले-बैत (अ.स.) से सच्ची मोहब्बत वही है, जो इंसान के अमल में दिखाई दे।” यही वजह है कि उनकी तालीम में तसव्वुफ़, सादगी और नफ़्स की इस्लाह को सबसे ज़्यादा अहमियत मिली।
बिलग्राम शरीफ़ से रूहानी सिलसिला
तारीख़ी रिवायतों के अनुसार, वारीस पाक के ख़ानदान का पुराना रिश्ता बिलग्राम शरीफ़ (ज़िला हरदोई) से रहा है, जो सदियों से सैयदों, उलेमा और सूफ़ियों का बड़ा मरकज़ माना जाता है। माना जाता है कि उनके अजदाद बिलग्राम से देवास शरीफ़ आए, जहाँ आगे चलकर वारीस अली शाह (रह.) की ख़ानक़ाह मदरसा क़ायम किया। यह ख़ानक़ाह मदरसा अहले-बैत (अ.स.) की मोहब्बत और तालीम का खुला मंच बन गया ! वारीस अली शहा का बिलग्राम से ताल्लुक और उनका नस्बी सिलसिला इस बात की ओर इशारा करता है कि आज जो बिलग्रामी सय्यद अपने आपको वारीस हुसैन बिलग्रामी की निस्बत देते है वे वारीस अली शहा पाक के वंश से हो क्यों कि वारीस अली शहा पाक का ज़िक्र कई जगह वारीस हुसैन शहा पाक बिलग्रामी के तौर पर भी मिलता है, हालाकि इस बात को साबीत करने वाले कोई इतिहासिक प्रमाण मौजुद नही है!
अहले-बैत (अ.स.) की तालीम पर अमल
वारीस पाक की ख़ानक़ाह, मदरसे में मज़हब, जात और हैसियत की कोई दीवार नहीं थी। हिंदू हो या मुसलमान, अमीर हो या ग़रीब—हर किसी के लिए दरवाज़ा खुला था। यह रवैया खुद अहले-बैत (अ.स.) की उस तालीम का अक्स था, जिसमें इंसान को इंसान समझने पर ज़ोर दिया गया है।
वो बार-बार कहते थे कि इंसान की असली पहचान उसका नस्ब नहीं, बल्कि उसका किरदार है। यही वजह है कि आज भी देवास शरीफ़ को गंगा-जमुनी तहज़ीब, मोहब्बत और आपसी भाईचारे की ज़िंदा मिसाल के तौर पर देखा जाता है।
देवास शरीफ़ की रूहानियत दरअसल वारीस अली शाह (रह.) की उसी सोच की देन है, जिसमें अहले-बैत (अ.स.) की मोहब्बत ज़बान से नहीं, ज़िंदगी से दिखाई देती है।
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