बेशर्म... बे ग़ैरत ... सत्ताधीश...?
( अली रज़ा आबेदी) बिहार की राजनीति में इन दिनों सबसे चौंकाने वाली बात कोई नीति, कोई घोषणा या कोई विकास कार्य नहीं है, बल्कि वह सोच है जो एक सार्वजनिक मंच पर सामने आई—और उससे भी ज़्यादा वह बयान, जिसने उस सोच को खुलकर वैध ठहराने की कोशिश की।
मुख्यमंत्री नितीश कुमार के द्वरा हिजाब पहनी एक महिला डॉक्टर नुसरत परवीन के साथ हुआ व्यवहार पहले ही सवालों के घेरे में था। लेकिन मामला वहीं रुक सकता था, अगर सरकार संवेदनशीलता और जवाबदेही का परिचय देती। अफ़सोस, ऐसा नहीं हुआ।
इसके उलट, बिहार सरकार के मंत्री संजय निशाद का बयान सामने आया—
“हिजाब को हाथ से खींचा, अगर कहीं छू लेते तो…”
यह बयान न सिर्फ़ असंवेदनशील है, बल्कि यह बताता है कि सत्ता के गलियारों में महिला सम्मान को किस स्तर तक समझा जा रहा है। क्या अब सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की गरिमा का पैमाना यह तय करेगा कि छुआ गया या नहीं? क्या अपमान तब तक अपमान नहीं, जब तक वह किसी तय रेखा को पार न करे?
यह बयान केवल एक महिला डॉक्टर के खिलाफ नहीं है। यह उस हर महिला के लिए चेतावनी जैसा है, जो शिक्षा, मेहनत और योग्यता के बल पर आगे बढ़ना चाहती है। संदेश साफ़ है—नौकरी चाहिए तो चुप रहो, मंच चाहिए तो सब सहो।
देश पहले ही बेरोज़गारी की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। ऐसे में महिलाओं के सामने विकल्प और भी सीमित हो जाते हैं। सम्मान और रोज़गार के बीच चयन करने को मजबूर करना किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शर्मनाक होना चाहिए।
अब मीडिया में यह खबर भी आ रही है कि संबंधित महिला डॉक्टर ने नियुक्ति (जॉइन ) करने से इनकार कर दिया है। भले ही इस खबर की आधिकारिक पुष्टि न हुई हो, लेकिन अगर यह सच है, तो इसे भावनात्मक प्रतिक्रिया कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। यह एक सोच-समझकर लिया गया आत्मसम्मान से जुड़ा निर्णय भी हो सकता है।
दुर्भाग्य यह है कि ऐसे मामलों में सवाल सत्ता से नहीं, पीड़िता से पूछे जाते है
वो आई क्यों ?
वो चुप क्यों नहीं रही ?
वो अब बोल क्यों रही है ?
इस पूरे घटनाक्रम में एक चीज़ सबसे ज़्यादा सुरक्षित नज़र आती है—कुर्सी।
नक़ाब खिंचने पर बहस हुई,
लेकिन जवाबदेही अब भी पर्दे में है।
यह मामला किसी एक व्यक्ति या एक बयान तक सीमित नहीं है। यह उस मानसिकता का आईना है, जो आज भी महिला की गरिमा को शर्तों में तौलती है। लोकतंत्र में सत्ता का असली इम्तिहान यही होता है कि वह सबसे कमज़ोर के साथ कैसा व्यवहार करती है।
और यहाँ, सवाल अब भी खड़ा है—
गलती किसकी थी?
या फिर गलती मानने की हिम्मत किसमें नहीं है?
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