बारामती के मतदाताओ के बज रहे है बारा... दादा और साहेब के बिच फंस गए है लोग !
बारामती में हालात ऐसे हैं कि वोटरों को समझ ही नहीं आ रहा कि किसे चुनें – शरद पवार साहब को या फिर अजित दादा को। जहां एक ओर शरद साहब का करिश्माई व्यक्तित्व है जो बरसों से बारामती के दिलों पर राज कर रहा है, वहीं दूसरी ओर हैं अजित पवार, जिन्होंने बड़े पिताजी की विरासत को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया है। और अब वोटर बेचारे हैरान-परेशान हैं, मानो अपने ही घर में महाभारत हो गया हो।
बारामती की गलियों में लोगों से पूछो तो जवाब मिलेगा, “अरे भाऊ, दोनों को नाराज नहीं कर सकते। इस घर में दादा की फोटो है तो उस घर में साहेब की।” अब भला ऐसे माहौल में कोई कैसे निर्णय ले? एक तो नेता पहले से ही जनता को मुश्किल में डाल देते हैं, और ऊपर से घर में अलग-अलग पार्टी की फ़ोटो टांगकर लोग भी अपना-अपना झंडा उठा रहे हैं। नतीजा? वोटर के लिए एक ही सवाल – शरद साहेब या अजित दादा?
कुछ वोटरों ने तो कसम ही खा ली है कि इस बार पोलिंग बूथ पर जाएंगे ही नहीं। पूछो क्यों? तो जवाब आता है, “दादा के सामने साहेब का नाम कैसे लें? और साहेब के सामने दादा का नाम लें तो कैसे?” लोग तो इतने कन्फ्यूज हो गए हैं कि व्हाट्सएप पर ‘वोटिंग टिप्स’ वाले मैसेज पढ़ने लगे हैं। एक चाय की टपरी पर वोटरों का कहना है, “अरे भाऊ, दोनों अपने आदमी हैं। किसी एक को चुनना तो अपने लिए धोखा जैसा है।”
अब सोचिए, चुनाव तो जनता के लिए होता है, मगर यहां तो जनता ही उम्मीदवारों से डरी हुई है। एक वोटर कहते हैं, “अगर दादा को वोट दिया तो साहेब बुरा मान जाएंगे। और साहेब को दिया तो दादा नाराज हो जाएंगे।” ऐसी स्थिति में ‘वोटिंग गाइड’ लिखने वालों को भी शर्म आ जाए। हर गली-मोहल्ले में ऐसी चर्चा है कि इस बार दोनों को ही खुश कैसे रखें, यह बड़ा सवाल है।
मालूम चला कि बारामती के वोटरों ने तय किया है कि जो भी जीते, उसमें वोट बराबरी से बंटने चाहिए, ताकि साहेब और दादा दोनों को लगे कि वोटर उनका साथ दे रहा है। एक बुजुर्ग ने बताया, “एक जमाना था जब चुनाव का फैसला घर के बड़े बुजुर्ग करते थे। लेकिन अब तो बड़े-बड़े नेता खुद ही कन्फ्यूज हैं, तो हम क्या करें?”
इस माहौल में एक बात तो पक्की है – इस बार का चुनाव कौन जीतेगा, ये बाद में पता चलेगा, मगर वोटर तो पहले से ही दोनों की राजनीति के शिकार हो चुके हैं।
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