बिहार में मतदाता सत्यापन या नागरिकता जाँच? क्या लोकतंत्र को चुनावी कागज़ातों में उलझाया जा रहा है?

भारत का लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है, लेकिन जब चुनावी प्रक्रियाओं पर ही सवाल उठने लगें, तब सोचने की ज़रूरत होती है कि कहीं हमारे मूलभूत अधिकार छीन तो नहीं लिए जा रहे? बिहार में चल रही मतदाता सूची की गहन सत्यापन प्रक्रिया अब विवादों में घिरती जा रही है। विपक्षी दल, सुप्रीम कोर्ट और पत्रकार समुदाय — सभी की नज़रें इस पर टिकी हुई हैं।
???? एक महीने में 8 करोड़ मतदाताओं का सत्यापन — कैसे?
बिहार में चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची की व्यापक पुनःजांच की प्रक्रिया शुरू की गई है। लेकिन यह सवाल उठता है कि एक महीने में 8 करोड़ मतदाताओं की जांच पारदर्शी तरीके से कैसे संभव है? सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया संदेहास्पद है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि "नागरिकता सिद्ध करने का अधिकार चुनाव आयोग के पास नहीं है, बल्कि यह केंद्रीय गृह मंत्रालय का कार्य है।"
???? विपक्ष के गंभीर आरोप
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि यह पूरा अभियान चुनावों को "हाईजैक" करने की कोशिश है। उनका कहना है कि जैसे महाराष्ट्र में विपक्षी एकता को चुनौतियाँ मिलीं, वैसे ही बिहार में वोटर डाटा में छेड़छाड़ कर सत्ता की दिशा मोड़ने की कोशिश की जा रही है।
कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस और ADR संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर इस प्रक्रिया को रोकने की मांग की है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस सत्यापन की आड़ में लाखों गरीब, दलित, मुस्लिम और प्रवासी मतदाताओं को वोटिंग अधिकार से वंचित किया जा सकता है।
???? दस्तावेज़ मांगना या नागरिकता छानबीन?
सत्यापन के नाम पर मतदाताओं से 11 प्रकार के दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं — जिनमें राशन कार्ड, आधार कार्ड, वोटर ID, जन्म प्रमाण पत्र आदि शामिल हैं। लेकिन सच यह है कि बिहार जैसे राज्य में करोड़ों गरीब परिवारों के पास ये दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जे. बागची की खंडपीठ ने सख्त लहज़े में कहा कि ये प्रक्रिया नागरिकता सिद्ध करने का अभियान प्रतीत हो रही है, जो चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
???? पत्रकारों की रिपोर्टिंग से खुलासे
वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम ने बिहार के कई जिलों में जाकर रिपोर्टिंग की है। उन्होंने बताया कि:
• आयोग की गाइडलाइन के अनुसार, मतदाताओं को दो फॉर्म मिलने चाहिए, पर ज़मीनी स्तर पर सिर्फ एक फॉर्म दिया जा रहा है।
• कोई रिसीविंग कॉपी नहीं दी जा रही, जिससे मतदाता बाद में दावा नहीं कर सकता कि उसने फॉर्म जमा किया था।
• कई फॉर्म कोरे हैं, बिना फोटो के, और उनमें हस्ताक्षर भी संदेहास्पद हैं।
• पटना में आधार कार्ड स्वीकार किया जा रहा है, पर सीमावर्ती मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में वही कार्ड नामंज़ूर किया जा रहा है।
???? क्या यह ‘एनआरसी’ जैसा अभियान है?
बहुतेरे विश्लेषकों का मानना है कि यह प्रक्रिया एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) जैसा दिखने लगा है — जिसमें नागरिकता सिद्ध करने के नाम पर खासतौर पर मुसलमान, दलित और पिछड़े वर्गों को टारगेट किया जा सकता है।
???? सवाल जो जवाब मांगते हैं:
• अगर यह सिर्फ मतदाता सूची सुधार है, तो इतनी जल्दीबाज़ी क्यों?
• क्या बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मतदाताओं के नाम जानबूझकर हटाए जाएंगे?
• अगर सब कुछ पारदर्शी है तो फॉर्म की रसीद क्यों नहीं दी जा रही?
• क्या सच में चुनाव आयोग स्वतंत्र है, या वह किसी दबाव में काम कर रहा है?
अशफ़ाक शेख
वरिष्ठ पत्रकार
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