इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की शहादत: इल्म, तक़वा और मज़लूमियत का एक अनमोल पैग़ाम"

इमाम रज़ा अ.स. के फर्ज़ंद जिन्हे "तक़ी" (परहेज़गार) और "जवाद" (उदार) जैसे ख़ूबसूरत लक़ब से नवाज़ा गया। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.), जिनका जन्म 10 रजब 195 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में हुआ, वो इमामत की ज़िम्मेदारी को कमसिन उम्र में संभालने वाले आलम-ए-इंसानियत के एक चमकते सितारे थे। आपके वालिद, इमाम अली रज़ा (अ.स.), और आपकी वालिदा, हज़रत ख़ैज़रान (अ.स.), के घर में आपकी तर्बियत ऐसी हुई कि आपने कम उम्र में ही इल्म-ओ-हिकमत के समंदर को अपने सीने में समेट लिया।आपकी शहादत, जो 29 ज़ीक़ादह 220 हिजरी को बग़दाद में हुई, एक ऐसी त्रासदी है जिसने आलमे इस्लाम के दिलों को जख़्मी किया, बल्कि आसमानों के फ़रिश्तों को भी रुला दिया। इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया था: "मेरे बेटे मोहम्मद तक़ी को मज़लूमाना क़त्ल किया जाएगा, और अहल-ए-आसमान उनके लिए ग़मज़दा होंगे।
इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की ज़िंदगी एक मिसाल है कि इल्म और तक़वा उम्र का मोहताज नहीं होता। जब आप केवल नौ साल के थे, तब इमामत की भारी ज़िम्मेदारी आपके कंधों पर आई। उस वक़्त ख़लीफ़ा मामून रशीद ने, जो आपकी फ़ज़ीलत से वाक़िफ़ था, अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह आपसे किया। यह निकाह सिर्फ़ एक रिश्ता नहीं था, बल्कि मामून की सियासत का हिस्सा था ताकि आलमे इस्लाम को अपने क़ब्ज़े में रख सके। मगर इमाम (अ.स.) ने हर मौक़े पर अपनी हिकमत और इल्म से यह साबित किया कि आप अल्लाह की हुज्जत हैं।बग़दाद के दरबार में बड़े-बड़े उलमा आपके सामने आए, मुनाज़रे में हिस्सा लिया, मगर हर बार आपकी इल्मी बुलंदी के सामने हार माननी पड़ी। यहया बिन अक्सम जैसे आलिम ने जब आपसे सवाल किए, तो आपने ऐसे जवाब दिए कि मामून को कहना पड़ा: "मोहम्मद (अ.स.) अपने वालिद के सच्चे वारिस हैं। कोई भी आलिम उनके इल्म का मुक़ाबला नहीं कर सकता।"आपके फज़ायल में से एक यह भी है कि आपने अपने शागिर्दों को हमेशा सितमगारों के ख़िलाफ़ खड़े होने की तालीम दी। आपने फ़रमाया: "सितमगारों के साथ रहो, मगर इस तरह कि तुम्हारे ज़रिए मोमिनों से ज़ुल्म दूर हो।" यह आपकी वह नसीहत है जो आज भी हमें ज़ालिमों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत देती है!
ऐ ग़मज़दा दिलों! इमाम मोहम्मद तक़ी अ.स. की शहादत जिसने इस्लामी दुनिया को हिलाकर रख दिया। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की शहादत का ज़िम्मेदार ख़लीफ़ा मुअतसिम था, जिसने अपनी सियासत को बचाने के लिए ज़हर का सहारा लिया। इमाम (अ.स.) को उम्मे फ़ज़्ल के ज़रिए ज़हर दिया गया, और उस ज़हर ने आपके मुक़द्दस जिस्म को इस क़दर जख़्मी किया कि आप 25 साल की कम उम्र में शहीद हो गए।लेकिन इससे भी ज़्यादा दुखदायी वह मंज़र था जब आपके मुक़द्दस जिस्म को क़स्र-ए-दारुल इमारा की छत से ज़मीन पर फेंक दिया गया। कई दिनों तक आपका जनाज़ा बग़दाद की गलियों में रहा, और कोई उसे दफ़न करने की हिम्मत न कर सका। यह वह ज़ुल्म था जिसने काज़मैन के आक़ा की शहादत को और भी मज़लूमाना बना दिया। इमाम हुसैन (अ.स.) के नवासे, इमाम रज़ा (अ.स.) के फ़रज़ंद, और पैग़ंबर-ए-आज़म (स.अ.व.) की औलाद पर ऐसा सितम ढाया गया कि फ़रिश्ते भी रो पड़े। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की ज़िंदगी और शहादत हमें कई सबक़ देती है।इल्म की अहमियत: आपने साबित किया कि इल्म उम्र का मोहताज नहीं। हमें चाहिए कि हम अपने बच्चों को इल्म और तक़वा की तालीम दें।ज़ुल्म के ख़िलाफ़ जिहाद: आपने फ़रमाया कि सितमगारों के साथ रहो, मगर मोमिनों की हिमायत में। यह हमें सिखाता है कि हमें हर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़ा होना है।सब्र और इस्तेक़ामत: ज़हर के दर्द को सहते हुए भी आपने हक़ की राह न छोड़ी। यह हमें सिखाता है कि मुसीबतों में सब्र और हक़ के लिए कुर्बानी देना इमामत की राह है।आज जब हम काज़मैन के आक़ा की शहादत का ग़म मना रहे हैं, तो आइए, इमाम-ए-ज़माना (अ.त.फ.स.) की बारगाह में ताज़ियत पेश करें। हमारा यह ग़म इमाम महदी (अ.स.) की ज़हूर की दुआ बन जाए, ताकि वह जल्द आएं और इस दुनिया से ज़ुल्म का ख़ात्मा करें।
अली रज़ा आबेदी
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