इस्लाम में देश से बगावत की इजाजत नहीं है, देश के कानून मानने होंगे।"... मौलाना साद क्या कहे गए... ?

[ अली रज़ा आबेदी ] जब धर्म और सत्ता की सीमाएं धुंधली होने लगें, तब इंसाफ की आवाज़ अक्सर सत्ता के शोर में दबा दी जाती है। ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि हम उन आवाज़ों को फिर से ज़िंदा करें जिन्होंने ज़ुल्म के खिलाफ अपने लहू से इंक़लाब की इबारत लिखी
हाल ही में तब्लीगी जमात के प्रमुख मौलाना साद का एक बयान सुर्खियों में रहा जिसमें उन्होंने कहा:
"इस्लाम में देश से बगावत की इजाजत नहीं है, देश के कानून मानने होंगे।"
यह वक्तव्य सुनने में भले ही संतुलित लगे, परंतु यह सवाल खड़ा करता है —
क्या हर हाल में, हर सत्ता और हर कानून का पालन इस्लाम में आवश्यक है, भले ही वह ज़ुल्म पर आधारित हो?
यहाँ मौलाना साद की चुप्पी या आज्ञाकारिता को इस्लामी नजरिये से देखना आवश्यक हो जाता है।
इस्लाम की नींव जिन महान लोगो ने रखी, उनमें हज़रत अली अ.स. का स्थान सर्वोच्च है। उनके वचनों में न केवल ज्ञान है, बल्कि सत्ता के सामने खड़े होने का साहस भी है।
"ज़ालिम से डरना और हक़ की बात न करना, खुदा की नज़रों में सबसे बड़ा गुनाह है।"
(नहजुल बलाग़ा)
हज़रत अली अ.स. का यह कथन मौलाना साद के वक्तव्य के ठीक विपरीत खड़ा है। जब एक पक्ष कहता है "हर हाल में कानून मानो", तो दूसरा कहता है — "अगर कानून ज़ुल्म पर आधारित हो, तो उसका विरोध फर्ज़ है।"
कुरआन स्वयं कहता है:
"ज़ालिमों की तरफ ज़रा भी झुकाव मत दिखाना, वरना आग तुम्हें छू लेगी..."
(सूरा हूद, 11:113)
इस आयत से स्पष्ट है कि इस्लाम केवल आज्ञाकारिता नहीं सिखाता, बल्कि न्याय के लिए प्रतिरोध सिखाता है। जब सत्ता इंसाफ से हट जाए, तो उसके सामने खड़े होना सिर्फ अधिकार नहीं, बल्कि ईमानी ज़रूरत बन जाता है।
इस्लामी विचारधारा बगावत को तभी स्वीकार करती है जब शासन ज़ुल्म, भ्रष्टाचार या अन्याय पर आधारित हो। लेकिन विरोध शांती और संयम के साथ होना चाहिए ! सर काटने के लिए नही, सर कटा कर ज़ुल्म और ज़ालिम को ऐसा जवाब दना चाहिए के फिर वो कभी खडा ही ना हो सके!
इमाम हुसैन अ.स. का करबला में यज़ीद के खिलाफ खड़ा होना इसी सिद्धांत का उदाहरण है।
क्या उनका यज़ीद की बय्यत से इनकार करना कानून तोड़ना था?
या फिर हक़ की पुकार?
मौलाना साद का यह कथन कि "देश के कानून हर हाल में मानने होंगे" एक तरह का अंध-समर्पण प्रतीत होता है, खासकर तब जब सत्ता में ज़ुल्म हो, जब संविधान का दुरुपयोग हो, जब अल्पसंख्यकों के अधिकार छीन लिए जाएं।
ऐसे में खामोशी न केवल कायरता है, बल्कि इस्लामी उसूलों से गद्दारी भी है। मौलाना साद सहाब कानून ना मान ना अवज्ञा तो हो सकता है बग़ावत नहीं! बग़ावत किसे कहते है ? सत्ता को उखाड फेकने के लिए खडा होना बग़ावत कहेलाता है! देश का संविधान और इस्लाम दोनो ज़ुल्म और ज़ालिम के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करने का हक़ देते है! देश मे वक्फ़ एमेटमेंट बिल के ख़िलाफ जो कुछ हिंसा हुई उस का आप निषेध्द कर सकते है, करना भी चाहिए! इस्लाम ने हमेशा अमनो अमान की ताईद की है!
इस्लाम की रूह सिर्फ इबादतगाहों में नहीं, बल्कि उन गलियों में भी बसी है जहाँ मज़लूम इंसाफ की उम्मीद में बैठा है। वहाँ मौलाना साद जैसे धार्मिक नेताओं की जिम्मेदारी बनती है कि वे सत्ता से नहीं, सच से वफादारी निभाएं।
हज़रत अली अ.स. ने कहा था:
"सबसे कमजोर इंसान वह है जो हक़ नहीं मांगता, और सबसे ज़ालिम वह जो हक़ मांगने से रोकता है।"
मौलाना साद के वक्तव्य को इस संदर्भ में परखना निहायत ज़रूरी है।
इस्लाम केवल कानून मानने का नाम नहीं, बल्कि हक़ और इंसाफ के लिए खड़े होने का नाम है — हर दौर में, हर दौर के यज़ीद के खिलाफ। लेकिन शांती और संयम के साथ, और यही फल सफ़ा हज़रत इमाम हुसैन अ.स. ने कर्बला मे अपना और अपने साथियो, रिष्तेदारो का सर कटा कर अपना घर बार लुटा कर दुनिया को दिया है! काश के मौलाना साद सहाब ने कर्बला को समझा होता... पढा मै इस लिए नही कहुंगा क्यों कि वे आलीम है! उन्होने बेशक पढा है!
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