पत्रकारिता मृत्युशय्या पर...! मुकेश चंद्राकर पहला शिकार नहीं...! चौथा स्तंभ केवल नाममात्र का, मोमबत्ती जलाने भी कोई नहीं आता...! "पालतू" मीडिया के कारण दुनिया में थू... थू!!

Jan 16, 2025 - 02:09
Jan 16, 2025 - 02:12
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पत्रकारिता मृत्युशय्या पर...! मुकेश चंद्राकर पहला शिकार नहीं...! चौथा स्तंभ केवल नाममात्र का, मोमबत्ती जलाने भी कोई नहीं आता...! "पालतू" मीडिया के कारण दुनिया में थू... थू!!

विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की स्थिति में पिछले साल की तुलना में 11 पायदान की गिरावट हुई है। 180 देशों में भारत का स्थान 159वें पायदान पर आ गया है, जबकि पड़ोसी देशों ने स्वतंत्रता के मामले में थोड़ी प्रगति की है और उनकी स्थिति बेहतर हुई है। 'रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स' (RSF) द्वारा जारी रिपोर्ट में यह स्थिति उजागर हुई है। भारत, जो आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, दुर्भाग्य से, कुछ अयोग्य और मूर्ख लोगों की वजह से वैश्विक स्तर पर बदनामी का सामना कर रहा है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में यूट्यूब पत्रकार मुकेश चंद्राकर की बर्बर हत्या इसका ताजा उदाहरण है। क्यों? क्योंकि उसने सरकारी स्तर पर राजनीतिक और ठेकेदारों के गठजोड़ का पर्दाफाश किया था। 50 करोड़ रुपये के सड़क निर्माण कार्य में 126 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि उठाई गई थी। पत्रकार को मारने वाले उसके रिश्तेदार ही निकले। हत्या के मास्टरमाइंड सुरेश चंद्राकर को पुलिस ने गिरफ्तार तो कर लिया, लेकिन पिछले 10-15 वर्षों में भ्रष्टाचार ने जिस हद तक अपनी जड़ें जमाई हैं, वह सामने आया है। पत्रकारों को किस हद तक बेपरवाही से मारा जा सकता है, यह इस घटना का संदेश है।*

मुकेश के पांच टुकड़े कर दिए गए और मारने के बाद उसे सेफ्टी टैंक में कंक्रीट डालकर दफना दिया गया। यह कितनी बेदर्दी है! भारत को अब प्रेस फ्रीडम सर्वे से बाहर हो जाना चाहिए। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ केवल एक मजाक बनकर रह गया है।

इतिहास के आइने में: ब्रिटिश शासनकाल में भी वायसरॉय ने कभी पत्रकारों को इस तरह रौंदा नहीं। 1910 में अंग्रेजों ने प्रेस एक्ट लागू किया, लेकिन उन्होंने भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए पत्रकारिता का इस्तेमाल करने वाले महात्मा गांधी और मौलाना आजाद को इस तरह खत्म करने की कोशिश नहीं की, जैसा आज हो रहा है।

पिछले 15 वर्षों का दर्दनाक सच: दुर्भाग्य से, पिछले 6-15 वर्षों में पत्रकारों को जान से मारने की घटनाएं बढ़ी हैं। जून 2015 में यूपी के शाहजहांपुर में रेत माफिया के खिलाफ लिखने वाले पत्रकार जोगेंद्र सिंह की हत्या कर दी गई। फरवरी 2016 में यूपी के सुल्तानपुर जिले में अवैध खनन का पर्दाफाश करने वाले पत्रकार के. मिश्रा की हत्या कर दी गई। बिहार के सीवान जिले में रंजन राजदेव नामक पत्रकार की बर्बर हत्या कर दी गई।

हर साल 5-6 पत्रकारों की हत्या होती है, लेकिन अब तक किसी भी हत्यारे को ठोस सजा नहीं मिली। सत्ता के संरक्षण में पनपते ये माफिया देश की व्यवस्था को दीमक की तरह खा रहे हैं। प्रशासन सत्ता के दबाव में लाचार हो गया है।

संघर्ष की कोशिशें और असफलता: यह नहीं है कि भारत में मीडिया पर हो रहे हमलों के खिलाफ आवाज नहीं उठाई जाती। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एनबीडीए, इंडियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन जैसी कई संस्थाएं पत्रकारों पर हो रहे हमलों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से उनकी आवाज दबा दी जाती है। सिर्फ दिखावटी कार्रवाइयां की जाती हैं।

परिणामस्वरूप, पत्रकार अब सत्ता या दबंग नेताओं के खिलाफ बोलने से डरते हैं। जो लोग आवाज उठाने का साहस करते हैं, वे भी या तो चुप करा दिए जाते हैं या हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। देश में रवीश कुमार और राज्य में निरंजन टकले जैसे गिने-चुने पत्रकार ही बेधड़क होकर सच बोलने का साहस कर रहे हैं। अधिकांश मीडिया, चाहे वह टीवी हो या प्रिंट, सत्ता का गुलाम बन चुका है।

धार्मिक  सांप्रदायिक मुद्दों में जनता को उलझाकर सत्ता अपने मकसद पूरे कर रही है। सच की आवाज दबाने का यह सिलसिला भारतीय लोकतंत्र और पत्रकारिता, दोनों के लिए घातक है।

— अशफाक शेख

ग़ुस्ताख़ी माफ़ मराठी से हिंदी अनुवाद !

 

 

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